एक बार एक गांव में अकाल पड़ा। वहां पर किसी के पास कुछ भी खाने को न बचा। उसी गाँव के एक सेठ के पास एक कोठी भरा धान था।
सभी गांव वासी उसके पास मदद मांगने गए। पर उसने अपना धान बांटने से मना कर दिया और तो और अपने परिवार को भी निकट सम्बन्धी के घर भेज दिया। सभी गांव वासी अन्न की तलाश में दूसरे गांव चले गए।
सेठ ने उस धान के कोष को खाने में खर्च नहीं किया। वह धान की रक्षा हेतु अनयत्र कहीं जा भी नहीं सकता था, अतः वहीं सहर्ष मृत्यु की गोद में सो गया।
लोगों ने सोचा कि काफी अन्न होते हुए भी सेठ क्यों मर गया। सब अपने अपने विचार से उसके बारे में बात करने लगे थे। लेकिन जब उसकी वसीयत को पढ़ा गया सभी सेठ की महानता पर हर्ष सें आँसू बहाने लगे।
उसमें लिखा था, "मेरा समस्त अन्न खेतों में फसल बोने के समय गाँव में बीज के लिए बाँट दिया जाए।"
दरअसल सेठ बड़ा ही दयालु, दूरदर्शी और दानी था। उसे ध्यान था कि अगले वर्ष मौसम के समय खेतों में बोने के लिए बीज न मिलेगा तो फिर से सबको अकाल का सामना करना पड़ेगा।
अगले वर्ष मौसम में वर्षा हुई और चारों ओर नई लहलहाती फसल से लग रहा था मानो सेठ मरा नहीं अपितु असंख्यों जीवधारी के रूप में हरे-भरे खेतों में लहलहाता फिर से धरती पर उतर आया हो।
दान की श्रेष्ठता उसकी विशालता में नहीं बल्कि उसकी त्याग वृत्ति में है। दान के भाव में त्याग-बलिदान की भावना जुड़ी हुई है। किसी के भले के लिए, देश-समाज के लिए प्राण की आहुति देना बलिदान कहलाता है। हमारी संस्कृति में अनेकों ऐसे उदाहरण हैं जब उच्च आदर्शों के लिए लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी।यही हमारी संस्कृति को देवसंस्कृति बनाती है, धन्य बनाती है।