एक बार एक फेरी वाला जो पुरानी साड़ियों के बदले बर्तन बेच रहा था, गली गली आवाज लगा रहा था।
तभी रमा घर से बाहर निकली। "ओ भैया ज़रा इधर आना।", और बर्तनों के लिए मोल भाव करने लगी।
उसने अंततः तीन साड़ियों के बदले एक टब पसंद किया।
"नहीं दीदी, बदले में चार साड़ियों से कम तो नही लूँगा।" बर्तन वाले ने टब को वापस अपने हाथ में लेते हुए कहा।
"अरे भैया, एक एक बार की पहनी हुई तो हैं, बिल्कुल नई जैसी। एक टब के बदले में तो ये तीन भी ज्यादा हैं, मैं तो फिर भी दे रही हूँ।"
"नहीं नहीं, चार से कम में तो नहीं हो पायेगा।" वे एक दूसरे को अपनी बात पर मना रहे थे।
उसी समय गली से गुजरती गरीब महिला ने वहाँ आकर खाना माँगा। रमा की नजरें उस महिला के कपड़ों पर गई। अलग-अलग कतरनों को गाँठ बाँध कर बनायी गयी उसकी साड़ी उसके वृद्ध शरीर को ढँकने का असफल प्रयास कर रही थी। एक बार तो उसने मुँह बिचकाया पर सुबह सुबह मांगने आयी है सोचकर अंदर से रात की बची रोटियां ले आयी।
उसे रोटी देकर पलटते हुए उसने बर्तन वाले से कहा "तो भैया क्या सोचा? तीन साड़ियों में दे रहे हो या मैं वापस रख लूँ !"
बर्तन वाले ने उसे इस बार चुपचाप टब पकड़ाया और अपना गठ्ठर बाँध कर बाहर निकला। अपनी जीत पर मुस्कुराती हुई रमा दरवाजा बंद कर ही रही थी, तो सामने नजर गयी। गली के मुहाने पर बर्तन वाला अपना गठ्ठर खोलकर उसकी दी हुई साड़ियों में से एक साड़ी उस वृद्धा को दे रहा था।
हाथ में पकड़ा हुआ टब उसे अब सुहा नहीं रहा था, चुभता हुआ सा महसूस हो रहा था। उसका मन ग्लानि से भर गया। उसे लगा जैसे उसकी अंतरात्मा उसे कह रही थी "यह कैसी जीत थी रमा तेरी, पैसो से ज्यादा तू कुछ देख सोच ही नहीं पाई!"
मित्रों, हमारी आत्मा कुछ कहती है। आधुनिक जिंदगी के कोलाहल में हम उसकी आवाज को सुन नहीं पाते। अपनी आत्मा की आवाज को पहचानिये। आज भी उसे सुख किसी को हँसा कर, किसी की मदद कर, सेवा करके ही मिलता है। किसी ने सही कहा है, 'भौतिक सुख क्षणिक होते हैं और आत्मिक सुख स्थायी।'
खुद को दूसरे के सुख दुख से जोड़िये। भावनाशील बने। अपनी लाइफ को स्ट्रेस व डिप्रेशन से बचाइए।