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चेतक की वीरता


रण बीच चौकड़ी भर-भर कर

चेतक बन गया निराला था

राणाप्रताप के घोड़े से

पड़ गया हवा का पाला था


जो तनिक हवा से बाग हिली

लेकर सवार उड़ जाता था

राणा की पुतली फिरी नहीं

तब तक चेतक मुड़ जाता था


गिरता न कभी चेतक तन पर

राणाप्रताप का कोड़ा था

वह दौड़ रहा अरिमस्तक पर

वह आसमान का घोड़ा था

था यहीं रहा अब यहाँ नहीं

वह वहीं रहा था यहाँ नहीं

थी जगह न कोई जहाँ नहीं

किस अरिमस्तक पर कहाँ नहीं


निर्भीक गया वह ढालों में

सरपट दौडा करबालों में

फँस गया शत्रु की चालों में


बढ़ते नद-सा वह लहर गया

फिर गया गया फिर ठहर गया

विकराल वज्रमय बादल-सा

अरि की सेना पर घहर गया


भाला गिर गया गिरा निसंग

हय[3] टापों से खन गया अंग

बैरी समाज रह गया दंग

घोड़े का ऐसा देख रंग

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