Aao Man Ki Gaanthe Khole | भारत संस्कारों की जननी
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आओ, मन की गांठें खोलें

यमुना तट, टीले रेतीले,

घास–फूस का घर डाँडे पर,

गोबर से लीपे आँगन मेँ,

तुलसी का बिरवा, घंटी स्वर,

माँ के मुंह मेँ रामायण के दोहे-चौपाई रस घोलें!

आओ, मन की गांठें खोलें!


बाबा की बैठक मेँ बिछी

चटाई बाहर रखे खड़ाऊं,

मिलने वालोँ के मन मेँ

असमंजस, जाऊँ या न जाऊँ?

माथे तिलक, नाक पर ऐनक, पोथी खुली, स्वयम से बोलें!

आओ, मन की गांठें खोलें!

सरस्वती की देख साधना,

लक्ष्मी ने संबंध न जोड़ा,

मिट्टी ने माथे का चंदन,

बनने का संकल्प न छोड़ा,

नये वर्ष की अगवानी मेँ, टुक रुक लें, कुछ ताजा हो लें!

आओ, मन की गांठें खोलें!

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आओ, मन की गांठें खोलें
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